रविवार, २४ एप्रिल, २०१६

जलपर्णीप्रमाणेच  ह्या  भीषण  दुष्काळामुळे  दशकानुदशक  आपल्या सर्व  जलस्त्रोतांना  आतुन  गिळणार्या  गाळाला आपण  पाहू  शकलो  हि  दुष्काळाची आणखी  एक  चांगली  बाजु !  कारण  ह्या  गाळामुळे  जलस्त्रोतांच्या  साठवणक्षमतेवर  विपरीत  परिणाम  होण्यासोबतच  ह्या  नैसर्गिक  स्त्रोतांमधील  पाणी जमिनीत  झिरपण्यातहि  अडथळा  निर्माण  झाल्याने  त्याचा  भुजलावरहि  विपरीत  परिणाम  होतो  हा  स्थानिकांचा अनुभव  आहे. 

एरव्ही  पाणी  भरलेले  असताना  गाळ  ऊपसण्याचे  काम  कठीण  आणि   खार्चिक  झाले  असते. पण  सद्यस्थितीत  तुलनात्मकरित्या  कमी  खर्च  आणि  श्रमात हा  गाळ  ऊपसता येऊ  शकतो. त्यामुळे  ह्या  महत्वपुर्ण   जलस्त्रोतांच्या  साठवणक्षमतेत  लक्षणीय  सुधारणेसोबतच  ह्याच  गाळाने  दुष्काळी  भागातील  जमिनीचा  पोत  सुधरवल्यास  त्या जमिनीची  सुपिकताहि   वाढुन  अन्नधान्यासोबतच  वैरण , चारा  ई.    गोष्तेर्न्ही    जमिनीतुन  . सदैव  दुष्काळी  पट्ट्यातील   अधिक   प्रमाणक्त  पिक   गा ऊपसण्यासाठीचा  खर्च  आणि  मिळणारा  फायदा  ह्यांचे  गणित  खुप  फायदेशीर  ठरू  शकेल  असे  जाणकारांचे  मत  आहे. 

पण  मुळात हि  ह्यामागील  चांगली  बाजु  असुनहि  गाळाच्या रूपात  आपले  जलस्त्रोत बुजवणारे  संकट  पुर्णपणे  आटोक्यात  येईपर्यंत  त्यांच्यसोबत  आपल्या  सर्वांचेच  अस्तित्वहि  टांगणीला  लागलेले  असेल.  त्यामुळेच  डोंगर ऊतार व  बोडक्या  जमिनींना  त्यांच्या  हक्काचे  वृक्ष - झुडूपाचे  छत्र  परत  मिळवून  देऊन  जमिनीची  धुप  आटोक्यात आणण्यासाठीचे  शर्थीचे  प्रयत्न  करणे  अत्यावश्यक  आहे.   पण  तरीहि  हिरवळ  वाढुन  भुमीच्या  ह्या  जख्मा    भरून  निघण्यास  काहि  कालावधी  लागेलच. म्हणूनच  ह्या  सर्व  ऊपायांसोबतच  गाव - खेड्यांमध्ये  डोंगर  ऊतारांवर  समतल  चर   पाडण्यासारखे  ऊपाय  तातडीने  करता  येऊ  शकतात. 

निवृत्त  वनाधिकारी  वसंतराव  टाकळकर  (  ज्यांचे काहि  वर्षांपुर्वी  निधन झाले . ) ह्यांनी  सहकार्यांच्या  सहाय्याने तीव्र  डोंगर  ऊतारांवर  हजारो  कि.मी.  लांबीचे  समतल  चर    खोदुन  धावत्या  पाण्याला  चालते  केले .  समतल  चरांमुळे  डोंगरावरून  खाली  येणार्या  पाण्याचा  वेग  कमी  झाल्याने  जमिनीची  धुप  आटोक्यात  येऊन  डोंगरावरून  वाहून  वाया  जाणारे  हे  पाणी चरांमुळे  आधी  डोंगर  ऊतारांवर  झिरपून पुढे  डोंगराच्या  खालच्या  बाजुस  खास  बनवलेल्या  तलावात  भरू लागते.  अश्याप्रकारे  ह्या  चरांमुळे  पावसाच्या  पाण्यापासून  होणारी  डोंगर  ऊतारांची  झीज  थांबुन  त्याचवेळेस  डोंगरांवरून  तलाव , नद्यांमध्ये  वाहून  जाणार्या  प्रचंड  माती  व  गाळाचे  प्रमाणहि  लक्षणीयरित्या  कमी  होते     तसेच  ते  पाणी  आधी  डोंगर  ऊतारांवर  आणि  नंतर   डोंगराच्या  पायथ्याशी  असणार्या  तलावात   झिरपत  गेल्याने  ( पुर्वी  वाहून  जाणार्या )  आता    जमिनीत  मुरणार्या  ह्या  पाण्याने   भुगर्भातील  पाण्याच्या   पातळीतहि   लक्षणीय  वाढ  होऊन  त्याचा  आसपासच्या  क्षेत्रातील  आड - विहिरींच्या  पाण्याच्या  पातळीवर  आणि  ऊपलब्धतेवरहि  खुप  सकारात्मक  प्रभाव  पडतो.  पण त्याचवेळेस  प्रत्यक्ष  जीवनस्वरूप  अश्या  पावसाच्या  प्रत्येक थेंबातील  ऊर्जा   पकडण्यासाठी  शेततळी , बंधारे  अश्या  ऊपक्रमांद्वारे  दृश्य  पाण्यासोबतच  जमिनीखालील  ह्या अदृश्य  जीवन  संपत्तीच्या जख्मांवरहि  आपण  फुंकर  घालू  शकतो.  पण  एका  हाताने  देत  असता  बोअरवेल्ससारख्या  तंत्रज्ञानाच्या  दुसर्या  हाताने  भुमातेच्या  जख्मेवर  जंगली  किड्यांगत  तुटुन  पडणार्या  आपल्या  पाषवी  वृत्तीला  सर्वप्रथम  ठेचणे  अत्यावश्यक  आहे.

पण  तोच  पाशवी  हात  वरदान  ठरला  तर  मात्र   हा  वरदानाचा  हात  फिरल्यानेच   भुमातेच्या  अश्वत्थाम्यागत  चिरंजीव  जख्मा  क्षणार्धात  भरून  निघतील.

हो  मित्रांनो  हा  चमत्कार  प्रत्यक्ष  साकारू  शकतो. 


  2013 सालच्या  भीषण  दुष्काळाचे  रिपोर्टिंग करताना " Abp माझा  " चॅनलचे  ज्येष्ठ पत्रकार " राहुल  कुलकर्णी "  ह्यांनी  आपल्या  शोध  पत्रकारितेद्वारे  महाराष्ट्राच्या  कानाकोपर्यातील दुष्काळाच्या  भीषणतेमागील  कारणांचा  वेध  घेताना पिक - पाण्याच्या हव्यासापोटि    बोअरवेल्समध्ये   लागलेली  जीवघेणी  स्पर्धा  आणि त्या  स्पर्धेतुन  भुमीचे  हृद्य  छेदणारे  दुष्काळी  भीषण   वास्तव  समोर  आणले   आणि  त्यानंतर  ह्याच्याच  पुढच्या  भागात  ह्या  बोअरवेल्समध्ये  दडलेल्या  भुमातेचे  घाव  भरणार्या  ऊपचारांबद्दलहि   सांगितले.

अश्याप्रकारे  जमिनीच्या  जख्मा  भरणे  चमत्कार  वाटत  असल्यास अण्णा  हजारेंचे   राळेगणसिध्दी ,  हिवरेबाजार ह्या सारख्या  गावांनी  आत्मविश्वास  आणि  अथक  परिश्रमातुन  आपल्या  बाजुस    फिरवलेल्या  ग्रहदशेस   काय  म्हणावे  ? 
कोकणातील  दापोली  येथे तिथल्या  कृषिविद्यापिठाच्या  मार्गदर्शनातुन   सर्वसामान्य  नागरीकांनी  भर  ऊन्हाळ्यात  करपणार्या शेतीला   कुठल्याहि " ईंधन ,  विज  किंवा  अत्याधुनिक  तंत्रज्ञानाच्या  मदतीशिवाय "  चक्क  समुद्राच्या  पाण्यावर  फुलवले  त्या  चमत्कारास तर  खार  पाणी  गोड  करण्याच्या महागड्या   तंत्रज्ञानाने  आणि  दुष्काळात  त्या  तंत्रज्ञानाचा पुरस्कार  करणार्या  सर्व चमचा प्रजातीनेहि   साष्टांग  दडंवत  घातला  पाहिजे. पण  त्याऊलट  चमत्काराला  नमस्कार  करणारे  आपण  स्वातंत्र्यानंतरहि   ( प्रशासनाचे ईतके अनुभव  घेतल्यानंतरहि )  आजतागायत    प्रशासनाकडून  चमत्काराची  अपेक्षा का  ठेऊन  आहोत ???

त्यामुळे ह्यापुढे  दुष्काळावर  मात  करणारे   असे  खरेखुरे  आदर्श  समोर  ठेऊन  कृती  करणार्या  प्रत्यक्ष  लोकसहभाग असलेल्या  योजनांची आवश्यकता  आहे. अश्या योजनांमध्ये   शहर - गाव  अश्या प्रकारच्या  कुठल्याहि  सीमा  अडथळा  ठरू  नयेत .  ह्यात  आर्थिक  मदतीकरता  सरकारवर  दबाव  वाढवून  ती  मिळण्यास  अडथळे  येत असल्यास  शहर - महानगरातल्या  जनतेने  आपले  कर्तव्य  ओळखुन  आपल्या  ग्रामीण  बांधवांसोबत  त्यांच्या  श्रमशक्तीचा नाहि  तरी  निदान  आर्थिक  भार  ऊचलण्यास  त्यांच्या  खांद्यला  खांदा  लावून  ऊभ  रहाण्याची  हि  वेळ आहे.
कारण आपल्या  शरीरातील  रक्ताचे  शेतकर्याच्या  घामाशी असणार  सख्ख   नात  तुटल्यास  एकेक  घास  महाग  झाल्यावर  त्याचा  भार  आपल्याला  डोईजड  होण्याआधीच  सर्वांना  त्या  नात्याची  जाणीव  झाल्यास  ऊद्या  सर्वांच्याच  वाट्याला  दोन  सुखाचे  घास  येतील.

पण  मित्रांनो  त्याचसोबत  प्रशासनाच्या  सक्तीची  किंवा  मदतीची  वाट  न  पहाता  रेन  वॉटर  हार्वेस्टिंगसारख्या  योजनांसाठी  स्वत:च  पुढाकार  घेण्यासोबत  आज  शहर - महानगरांच्या  खाली  मरणासन्न  अवस्थेतील  भुजलास  नवजीवन  देण्यासाठी  कॉंक्रीटिकरणाचा  विळखा   जागोजागी   तोडण्याची  गरज  आहे.  ज्यायोगे  भुमीला  मोकळा  श्वास  घेता  येऊन  तिच्या  गर्भातील  "जीवन"हि  जगेल !

ह्यातील  जलस्त्रोतांच्या  प्रदुषणाबाबत  खर  तर तोच  ऊतारा  आहे  जो  सर्वांना  मृत्युचा  विळखा  वाटतोय  म्हणजे  जलपर्णी !

नद्या - तलावांसारख्या  जलस्त्रोतांना गिळून  टाकणार्या  ह्या  जलपर्णीस  पहाताच हॉलीवूडच्या  चित्रपटातील   परग्रहावरून  आलेल्या  विनाशकारी प्राण्याची  आठवण  होते.  नक्कीच  दाटिवाटिने  जलस्त्रोतात  अस्ताव्यस्त   पसरणार्या जलपर्णीमुळे  ते  पाणी   हलूहि   शकत  नाहि  आणि  त्यात  सुर्यप्रकाशहि   पोहोचु  शकत  नाहि  पण  प्रत्यक्षात  हे  पाणी  आणि  त्यातले  जीवन  प्रदुषणामुळे  आधीच l नासलेले असते  आणि  हि  जलपर्णी  केवळ  त्या  पाण्यातील प्रदुषणाची  निदर्शक ( प्रदुषणाची माहिती  देणारी )  असते.    ती  त्या  पाण्यात  असते  कारण  प्रदुषित  पाण्यातील  अनेक   घातक  विषारी  घटकच  तिचे  खाद्य  असल्याने  ते  पाणी  तिच्यासाठी  नंदनवन  असते. पण  हिच  तिची काळी  नाहि  तर  ऊजळ  बाजु  असते.      कारण  तिच्या  ह्याच  स्वभावामुळे  सहजच  ती  पाण्यातील  अनेक  विषारी  घटकांना  शोषुन  घेते  व  आपोआपच  कुठल्याहि  खर्चाविना  ती  पाण्याला बर्याचप्रमाणात   शुध्दहि  करते.

अमेरिकेतील   सुप्रसिध्द  अंतराळ  संशोधन  संस्था  "नासा"च्या  मदतीने  70 च्या  दशकातच  जलपर्णीतील  जलशुध्दीकरणाच्या  सकारात्मक  शक्तीचा  ऊपयोग करून  घेण्यास   सुरूवात  झाली   तेंव्हापासून  आजतागायत  अमेरिकेसारख्या  अतिप्रगत  देशांपासून  बांग्लादेशसारख्या  अविकसित  देशांनीहि  ह्या  वनस्पतीच्या  शक्तीचा  आपापल्यापरीने ऊपयोग  करून  घेतला.


भारतातहि  90 च्या  दशकात  सांगलीतील  औद्योगिक  वसाहतीत  जलपर्णीपासून  जलशुध्दीकरणाचा  छोटेखानी  प्रकल्प  सुरू  होऊन  पुढे  त्याला  यश  मिळूनहि  नंतर  मात्र  काहि  कारणास्तव  हे  सर्व  दुर्लक्षित  होऊन  काळाच्या  पडद्याआड  गेले.

प्रत्यक्षात  जलप्रदुषणासारख्या  समस्येशी  झुंजणार्या  भारतासारख्या  विकसनशील  देशासाठीच  देवाने  ह्या  जलपर्णीस  घडवले  असावे  कारण  आपल्या  देशाचे ऊष्ण - दमट  हवामान     ह्या  जलपर्णीच्या  वाढिसाठी  अत्यंत  पोषक  आहे. त्याचवेळी  ऊद्योगांसोबत  महानगर - गावातुन  निर्माण  होणारे  प्रदुषित  पाणी  आणि  वर्षानुवर्ष  त्यावर  प्रक्रिया  करण्यासाठीच्या  अपुर्या  यंत्रणेचे  रडगाणे  आणि  एकुणच  ह्या  ऊल्हासामुळे  देशाच्या  वाट्याला  आलेला  कधीहि  न  सरणारा  प्रदुषणाचा  जीवघेणा  फाल्गुनमास   अश्या  सर्व  प्रकारच्या  परिस्थितीवर  जलपर्णी  कुठल्याहि संजीवनीपेक्षा  कमी  नाहि.  त्यामुळेच  आजच्या  घडीला  देशभरात  अश्या  प्रकल्पांचे     महत्व अनन्यसाधारण अश्या
प्रकल्पांसाठी थोड्या  जास्त  जागेची  गरज  भासते  पण  देशभरात      जिकडे , तिकडे   मोठ्या  प्रमाणात   ओसाड ,  वैराण  जमिनींची  भरमार   असल्याने  जागेचा  प्रश्न  हा  जलपर्णी   प्रकल्पासाठी  अडथळा  ठरू  शकत  नाहि.  तसेच  जवळपास ( म्हणजेच शहर , कारखाने  ई.  दुषित  पाण्यांच्या  स्त्रोतांच्या जवळ )  शुध्दीकरण  प्रकल्पासाठीची   जागा  ऊपलब्ध  नसल्यास  हे  प्रदुषित  पाणी  पंपाच्या  सहाय्याने  दूरवर  नेऊनहि  हि  प्रक्रिया  करता  येऊ  शकते.

जलपर्णीच्या  वाढिचा  वेग  जास्त  असल्याने  अश्या  प्रकल्पातुन  दररोज  थोडी  थोडी  जलपर्णी  काढत  राहिल्यास  साधारणत:  महिन्याभरात  त्या  प्रकल्पातली  जलपर्णी  पुर्णपणे  बदलली  जाऊन  प्रकल्पात  नव्याने     ऊगवलेली  जलपर्णीच  शिल्लक राहून   त्या  नव्या  दमाच्या  जलपर्णीमुळे  जलशुध्दीकरणाची  कार्यक्षमतहि  वाढते ( किंवा  कायम  रहाते.)

पण  सर्वात  महत्वाची   गोष्ट म्हणजे  ह्या  प्रकल्पातुन  दररोज टाकाऊ  कचरा  म्हणून  निघणारी  जलपर्णी  तर  प्रकल्प  आणि  समाजासाठी   सोन्याच  अंड  देणारी  कोंबडी  असते.

कारण  ह्या  जलपर्णीपासून  खत , जनावरांसाठी  खाद्य  ई.  अनेक  ऊपयुक्त  गोष्टी  निर्माण  होतातच  पण  त्याहिपेक्षा  लक्षवेधी  गोष्ट हि की ह्या  टाकाऊ पदार्थांवर  वाढलेल्या जलपर्णीपासून  चक्क  मिथेनसारख्या  ईंधनाची  निर्मितीहि  करता  येऊ  शकते.

ह्या  जलशुध्दीकरणाच्या  प्रक्रियेत जलपर्णीकडून  एकुण  दुषित
पाण्यापैकी  "फक्त" 13% पाणी  वापरले  जाऊन  त्या  मोबदल्यात   जलशुध्दीकरणाचा  ऊद्देश  100%  सफल   होतो.

म्हणजेच  मित्रांनो  "आंधळा  मागतो  एक 
अन  देव  देतो  दोन डोळे ! "   हा  वाक्प्रचारहि  अगदिच  थिटा  वाटावा  अशी  ह्या  जलपर्णीची  अगाध  महती !

थोडक्यात  हि  जलपर्णी  आपल्यासाठी  साक्षात  कल्पवृक्ष  ( ईच्छीलेले  देणारी )  आहे.  आणि  तिच्याद्वारे  प्रदुषणाच्या अरण्यात  हरवून  गेलेल्या  पाण्याला  परत  मिळवण्याऐवजी  आपण पुराणांमधल्या  धर्म - जातींची  " घरवापसी " करण्यासाठी  ऊत्सुक  आणि  समर्पित  असु  तर  आपला  देश  भविष्यात  जाण्याऐवजी  आदिमानवयुगात  परत  जाईल  ह्याबद्दल  माझ्या  मनात   काहि  शंका  नाहि.

शाश्वत ऊपाय !


विकासगंगेच  फसव चित्र  थंडीतच  कोरड्या  पडलेल्या  नळांनी   ऊघड  केल्यानंतर  ह्यापुढे  तरी  आपले - परके ,   खर्या - खोट्यातला  फरक  ओळखुन  दुर्लक्षित झालेल्या  आड , नद्या ,  ओढ्यांची  म्हणजेच  आपल्या   जीवनदायी  जलस्त्रोतांची  काकुळतीची  हाक  ऐकुन  त्यांची  दुरावस्था  दूर  करण्याचे प्रयत्न  व्हायला  हवेत.  त्यासाठी  नद्या - ओढ्यांना  नासवणारे  प्रदुषण  आणि    नद्यांसकट  धरण , बंधारे , तलावांचे   अस्तित्वच  बुजवायला  निघालेला  गाळ  तसेच  गाव - शहरातील  भुजलाची  दुरावस्था  आणि  खालावलेली  पातळी  ह्या  आजच्या  विदारक  परिस्थितीविरोधात  आपल्यातले  सर्वप्रकारचे  भेदाभेद   विसरून  समाजातल्या  सर्व  स्तरातल्या  लोकांनी  एकत्र  येऊन  ऋतुमानाप्रमाणे  " नेमेची  येऊन "  दुष्काळात  स्वार्थाचा  सुकाळ  आणणार्या  ह्या  अवर्षणाच्या  दुश्चक्राला  कायमस्वरूपी   हद्दपार  करण्याचे  अथक  शाश्वत  प्रयत्न  केले   पाहिजेत  आणि  केवळ  त्यानंतरच  ह्या  दुष्काळामागे   दडलेल्या  भस्मासुरांना  जरब  बसेल

दुष्टचक्र !


वर्षानुवर्ष  सुरू  भ्रष्टाचाराचे  दुष्टचक्र !

   वैश्विक  ऊश्मीकरण  किंवा  लहरी  हवामानापेक्षाहि  समाज , सरकार  आणि  प्रशासन  ह्यांच्याकडून  होणार्या  अश्या  अनेक  अक्षम्य  चुकांमुळे , भ्रष्टाचारामुळे  अश्या  दुष्काळांना  त्यांची  भीषणता  मिळते.  एकीकडे  अनेक  तज्ञ  त्यातहि  स्वत:  राज्याच्या  जलसंपदा  खात्याचे  माजी  अधिकारी    विजय  पांढरे  ह्यांच्या मते देशातील  मोठमोठ्या  आर्थिक  सिंचन  प्रकल्पांपेक्षा  ' शिरपुर  पॅटर्न '  म्हणून  प्रसिध्द  असलेल्या  तंत्रज्ञानाची  क्ष्मता  बरीच  अधिक  असते.  त्यात  वर्षानुवर्ष   मोठमोठ्या  प्रकल्पांच्या  घश्यात  अब्जावधी ओतुनहि  कोरडी  राहिलेली  भुमी  हा  स्वानुभव  आणि  दुसरीकडे  त्याच  पाण्यासंबंधीच्या  जटिल  प्रश्नांवर  स्थानिकांनीच  शोधलेली  कमी  खार्चिक  पण  सडेतोड  ऊत्तर !   विविध  ठिकाणच्या  स्थानिक  हवामानाचा  पॅटर्न  ,  जमिनीचा  पोत , सदैव  अवर्षणग्रस्त  रहाणारे  भुभाग  तसेच  शेतकर्यांची   सामाजिक  तसेच  आर्थिक  परिस्थिती      हा  सर्व  डाटा  किंवा  मुद्देमाल  जवळ  असुनहि  एरव्ही  टेक्नॉलॉजीच्या  वापरास  आतुर  असणारे  आपल्यास  समाजाचा , शेतकर्यांचा   प्रतिनीधी म्हणवणारे  आपले  सर्वपक्षीय  नेतेहि  समाजाला  ह्या  संकटांतुन  बाहेर  काढण्यासाठी  ( ट्रबल शुटिंगचे  तेच  भंगार  पारंपारिक  पुस्तक  वाचण्यापलीकडे  जाऊन )  विशेष  काहिच  करत  नाहित.  आणि  त्यामुळेच  कर्जमाफीपासून  ते  अवर्षणावरील  तेच  घासून  घासून  गंजलेले  ऊपाय करून  पुन्हा पुन्हा  ऊद्धभवणार्या  ह्या  दुष्टचक्राचे  खापर  सर्वस्वी  निसर्गावर  फोडून  स्वत:  नामानिराळे  होतात.  [ प्रत्यक्षात  ह्याच        सर्वपक्षीय  नेतेमंडळींमुळे    निवडणूकीत  मार  खावा  लागल्यावर    त्या  त्या  पक्षांचे  राज्यस्तरीय,  राष्ट्रीय   अध्यक्ष  त्या  नेत्यांची  स्वत:  जातीने  "शाळा"  घेतात  आणि  सर्व  सुरळीत   झाल  आहे  हि  खात्री  झाल्यावरच  आपला  मोर्चा  दुसरीकडे  वळवतात. 
पण  माझ्यामते  आपल्याकडे  निवडणूक  जिंकणे  हिच  प्रथम    आणि  अंतिम  गुणवत्ता  मानण्याची  सर्वपक्षीय  परंपरा  असल्याने  निवडून   आलेल्या  लोकप्रतिनिधीला ( पुढिल  निवडणूकीपर्यंत )  काहि   शिकवण्याचा  अधिकार   पक्षाच्या  राष्ट्रीय  अध्यक्षांनाहि नसावा  म्हणूनच  निवडणूकीचे  तिकीट  मिळवण्यासाठी      नेत्याने  समाजासाठी  किती  काम  केलय  ह्याऐवजी  त्याच्या फेसबुक   पेजला किती  लाईक्स  आहेत  हा  निकष  असावा  असे  व्यवहार्य  विचार    प.पु.शहामुनींनीच  काहि  दिवसांपुर्वी  जाहिररित्या  व्यक्त   केले  हे  ह्या  राष्ट्रवादि  देशाचे  अहोभाग्य ! ]

पण  ह्या  वृत्तीमुळेच  ह्यावर  कायमस्वरूपी  ऊपाययोजना  होण्याऐवजी  घोषणा , योजना , कर्जमाफी  आणि  पुन्हा  त्यातहि  भ्रष्टाचार  असे  हे  दुष्टचक्र  निसर्गचक्राप्रमाणे  फिरतच  राहून  त्यामुळे  सरकारी तिजोरी  रिकामी  होत  जाऊनहि  खर्या  लाभाविना  गरीब  आणखी  गरीब  होत  जाऊन   सामाजिक  विषमता  वाढत  जाते.  त्यामुळे  निदान  ह्यापुढे  तरी  कुणाच्या   खोट्या  आशेवर  बसण्यापेक्षा  परिस्थिती  बदलण्याचा  आत्मविश्वास  स्वत:त  जागवल्यास  " काखेत  कळसा ........ ...... ! "  ह्या  म्हणीप्रमाणेच  स्वत:  प्रश्नातच  दडलेली  ऊत्तर  आपल्यासमोर  अलगद  ऊलगडत  जातील. 

दुष्टचक्र !


वर्षानुवर्ष  सुरू  भ्रष्टाचाराचे  दुष्टचक्र !

   वैश्विक  ऊश्मीकरण  किंवा  लहरी  हवामानापेक्षाहि  समाज , सरकार  आणि  प्रशासन  ह्यांच्याकडून  होणार्या  अश्या  अनेक  अक्षम्य  चुकांमुळे , भ्रष्टाचारामुळे  अश्या  दुष्काळांना  त्यांची  भीषणता  मिळते.  एकीकडे  अनेक  तज्ञ  त्यातहि  स्वत:  राज्याच्या  जलसंपदा  खात्याचे  माजी  अधिकारी    विजय  पांढरे  ह्यांच्या मते देशातील  मोठमोठ्या  आर्थिक  सिंचन  प्रकल्पांपेक्षा  ' शिरपुर  पॅटर्न '  म्हणून  प्रसिध्द  असलेल्या  तंत्रज्ञानाची  क्ष्मता  बरीच  अधिक  असते.  त्यात  वर्षानुवर्ष   मोठमोठ्या  प्रकल्पांच्या  घश्यात  अब्जावधी ओतुनहि  कोरडी  राहिलेली  भुमी  हा  स्वानुभव  आणि  दुसरीकडे  त्याच  पाण्यासंबंधीच्या  जटिल  प्रश्नांवर  स्थानिकांनीच  शोधलेली  कमी  खार्चिक  पण  सडेतोड  ऊत्तर !   विविध  ठिकाणच्या  स्थानिक  हवामानाचा  पॅटर्न  ,  जमिनीचा  पोत , सदैव  अवर्षणग्रस्त  रहाणारे  भुभाग  तसेच  शेतकर्यांची   सामाजिक  तसेच  आर्थिक  परिस्थिती      हा  सर्व  डाटा  किंवा  मुद्देमाल  जवळ  असुनहि  एरव्ही  टेक्नॉलॉजीच्या  वापरास  आतुर  असणारे  आपल्यास  समाजाचा , शेतकर्यांचा   प्रतिनीधी म्हणवणारे  आपले  सर्वपक्षीय  नेतेहि  समाजाला  ह्या  संकटांतुन  बाहेर  काढण्यासाठी  ( ट्रबल शुटिंगचे  तेच  भंगार  पारंपारिक  पुस्तक  वाचण्यापलीकडे  जाऊन )  विशेष  काहिच  करत  नाहित.  आणि  त्यामुळेच  कर्जमाफीपासून  ते  अवर्षणावरील  तेच  घासून  घासून  गंजलेले  ऊपाय करून  पुन्हा पुन्हा  ऊद्धभवणार्या  ह्या  दुष्टचक्राचे  खापर  सर्वस्वी  निसर्गावर  फोडून  स्वत:  नामानिराळे  होतात.  [ प्रत्यक्षात  ह्याच        सर्वपक्षीय  नेतेमंडळींमुळे    निवडणूकीत  मार  खावा  लागल्यावर    त्या  त्या  पक्षांचे  राज्यस्तरीय,  राष्ट्रीय   अध्यक्ष  त्या  नेत्यांची  स्वत:  जातीने  "शाळा"  घेतात  आणि  सर्व  सुरळीत   झाल  आहे  हि  खात्री  झाल्यावरच  आपला  मोर्चा  दुसरीकडे  वळवतात. 
पण  माझ्यामते  आपल्याकडे  निवडणूक  जिंकणे  हिच  प्रथम    आणि  अंतिम  गुणवत्ता  मानण्याची  सर्वपक्षीय  परंपरा  असल्याने  निवडून   आलेल्या  लोकप्रतिनिधीला ( पुढिल  निवडणूकीपर्यंत )  काहि   शिकवण्याचा  अधिकार   पक्षाच्या  राष्ट्रीय  अध्यक्षांनाहि नसावा  म्हणूनच  निवडणूकीचे  तिकीट  मिळवण्यासाठी      नेत्याने  समाजासाठी  किती  काम  केलय  ह्याऐवजी  त्याच्या फेसबुक   पेजला किती  लाईक्स  आहेत  हा  निकष  असावा  असे  व्यवहार्य  विचार    प.पु.शहामुनींनीच  काहि  दिवसांपुर्वी  जाहिररित्या  व्यक्त   केले  हे  ह्या  राष्ट्रवादि  देशाचे  अहोभाग्य ! ]

पण  ह्या  वृत्तीमुळेच  ह्यावर  कायमस्वरूपी  ऊपाययोजना  होण्याऐवजी  घोषणा , योजना , कर्जमाफी  आणि  पुन्हा  त्यातहि  भ्रष्टाचार  असे  हे  दुष्टचक्र  निसर्गचक्राप्रमाणे  फिरतच  राहून  त्यामुळे  सरकारी तिजोरी  रिकामी  होत  जाऊनहि  खर्या  लाभाविना  गरीब  आणखी  गरीब  होत  जाऊन   सामाजिक  विषमता  वाढत  जाते.  त्यामुळे  निदान  ह्यापुढे  तरी  कुणाच्या   खोट्या  आशेवर  बसण्यापेक्षा  परिस्थिती  बदलण्याचा  आत्मविश्वास  स्वत:त  जागवल्यास  " काखेत  कळसा ........ ...... ! "  ह्या  म्हणीप्रमाणेच  स्वत:  प्रश्नातच  दडलेली  ऊत्तर  आपल्यासमोर  अलगद  ऊलगडत  जातील. 

बदललेली शेती.


बदललेली  शेती !

बदलत्या  काळानुसार  बदलणे  प्रकृतीचा  नियम  आहे  हे  मान्य  केले  तरीहि  किती  बदलावे आणि  कुठे  थांबावे  हे  ठाऊक  नसल्यास  त्या बदलावांनी  कपाळमोक्ष  होण्याचीच  शक्यता अधिक !  

शेतीच्या  बाबतीतहि  अगदि  हेच  घडले.  बदलत्या  काळानुसार  शेतीच्या  पद्धतीहि  बदलल्या. पुर्वापार चालत  आलेली  मिश्र  पिक  पध्दती  आणि  सेंद्रिय  शेती  ज्यात  स्थानिक  हवामानापासून  ते  ऊपलब्ध  पाण्याच्या  नियोजनबध्द  वापरापर्यंत  आणि  रोग - किटकांच्या  प्रादुर्भावापासून  ते  एकच  एक  पिकाच्या  भरघोस  ऊत्पादनामुळे  होऊ  शकणार्या  आर्थिक  दुष्परिणामांपर्यंत अश्या  सर्व  बाबींचा  विचार  होऊन  त्याज्य  शेतमाल , पालापाचोळा , शेणापासून  ते  अगदि  टाकाऊ  केरकचर्यापर्यंत  स्वस्त ,  सहज  ऊपलब्ध  असलेल्या  साहित्याच्या  वापरातुन  सृष्टीच्या  पुन:र्प्रक्रियेच्या  चक्राचा  एक  भाग  बनुन  एकप्रकारे  तिने  आपल्यास  दिलेलेच  तिला  पुन्हा  सुपुर्द  करून  जमिनीचा  कस  नैसर्गिकरित्या  वाढवला  जाई. ह्यात पैसा व  पाण्याच्या  अमुल्य  बचतीसोबतच  जमिन  आणि  सृष्टीवर  होणारे  रासायनिक  शेतीचे  दुष्परिणाम  टाळले  जाऊन  ह्या  सर्वातुन  शेतकर्याचे  आर्थिक  संरक्षण  साधले  जाई.

कालांतराने  ह्या  पध्दती  मागे पडून  रासायनिक  खते ,  किटकनाशके , "नगदि पिक " , हायब्रीड  बियाण  ई.  चा  वापर  वाढत  गेल्याने  शेतीच्या  खर्चासोबतच  पाण्याचा  वापरहि  वाढला. त्यात प्रशासनाच्या  पाण्याच्या  नियोजनशुन्यतेमुळे  वाढत्या  पाण्याची  गरज  भागवण्यासाठी  आड - विहिरीहि  कमी  पडून  बोअरवेल्सचा  वापर  दिवसागणिक  वाढत  गेला. 

दुसरीकडे  रासायनिक  खत  आणि  पाण्याच्या  अतिवापराने  जमिनीचा  कस  कमी  होत  जाऊन  प्रतिहेक्टरी  ऊत्पादनात घट  होऊनहि  शेतकरी  वर्गाकडून  काहि ठराविक  पिकांना  मिळणार्या  प्राधान्यक्रमामुळे  एकुण  ऊत्पादन  मात्र  भरघोस  दिसून  दलाल - अडत्यांच्या  परंपरागत  वृत्तीमुळे  शेतमालाच्या  किमतीत  म्हणजेच  शेतकर्याच्या  ऊत्पन्नात  घट  होत  जाऊन  त्याचवेळी  आधुनिक  शेतीतल्या  वाढत्या  खर्चाने  बिघडलेल्या  गणितामुळे  कर्जबाजारीपणा  वाढत  गेला.  आणि  ह्या  सर्वांमध्येच  अमर्याद  पाणी  ऊपश्यापुढे  भुजलाच्या  नैसर्गिक  पुन:र्भरणाला  असलेल्या  मर्यादेचा  मात्र  विसर  पडल्याने  भुजलस्तर  घसरत  जाऊन  ऊत्तरोत्तर  बोअरवेल्सहि  निकामी  ठरू  लागली.